अनाथ


तन मन भूखा, जीवन रूखा!
पडा दुआरे तरस रहा है!!
ए श्रीष्टि के रचने वाले !
इसीलिए क्या मुझे रचा है!!

क्यों जाना दीया वसू - देवकी के!
दीया भाग्य न अपने जैसा!!
कंस राज की इस नगरी में!
न दीया सहारा यशोदा सा!!

था नही ज्ञान तुझको निर्दयी!
इस तन में उर्र और मन भी है!!
मन की भूख दबा भी लें!
पर उर्र की भूख का अंत नही है!!

तू है रखवाला जन-जन का!
पर भूल गया मुझ बालक को!!
अन्न, आँगन, ममता छिनी!
और छीन लिया मेरे पालक को!!

मजबूर पडा मृत्यु की गोद में!
दया से तेरी दूर रहा हूँ!!
क्या? भूखे मरने को ही जिया!
बस यही में तुझसे पूछ रहा हूँ!!

.......एहसास!

1 टिप्पणी:

Rajat Narula ने कहा…

था नही ज्ञान तुझको निर्दयी!
इस तन में उर्र और मन भी है!!
मन की भूख दबा भी लें!
पर उर्र की भूख का अंत नही है!!

sunder rachna hai...

धन्यवाद !

एहसासों के सागर मैं कुछ पल साथ रहने के लिए.....!!धन्यवाद!!
पुनः आपके आगमन की प्रतीक्षा मैं .......आपका एहसास!

विशेष : यहाँ प्रकाशित कवितायेँ व टिप्पणिया बिना लेखक की पूर्व अनुमति के कहीं भी व किसी भी प्रकार से प्रकाशित करना या पुनः संपादित कर / काट छाँट कर प्रकाशित करना पूर्णतया वर्जित है!
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित 2008